Monday, May 25, 2009

Kalam

कल रात कुछ लिखने बैठा तो कलम दूर जा कर बैठ गयी
अपनी ताकत पर ऐंठ गयी और बोली तेरे मेरे रास्ते बँट गए हैं
तुझे दिखाई नहीं देता मेरे होंठ फट गए हैं
थक गयी हूँ लिखते - लिखते तेरे सच्चे झूठे किस्से
आज क्या नयी बात लिखेगा, वही सुबह वही रात लिखेगा
थोडा पुण्य पाप लिखेगा, फिर खुद को बेताब लिखेगा
अपनी बेताबी की धुन में मेरे दुःख को भूल गए हो
एक वाह की चाह में जाने क्यूँ तख्तो पे झूल गए हो
वैश्या बना रखा है, किसी के भी कोठे पर नचवा देते हो
चंद पैसों के लिए कुछ भी लिखवा देते हो
एक प्रेमी ने मुझे बनाया, मुझसे प्रेम पत्र लिखवाया
आज में ढोंगी की बेटी हूँ,
रोज बेचता है मुझको, बात समझ में आई तुझको
मैं बोला चुप हो जा पगली
यूँ भावों मैं मत बहका
भाव होते तो लेखक या कवी बनता?
सीमा पर जा कर डट जाता अब तक तो शायद मर जाता
पर मरना नहीं मुझे जीना है, इसलिए ज़हर तुझे ये पीना है
मैं जो बोलूं तुझे लिखना है, दोनों को एक सा दिखना है!!!

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